पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/११३

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शिवसिंहसरोज
१८५. चिरंजीवगोसाईं
(भारत भाषा)
छपै

बैसवार मुथ देस मुनो रतनाकर सागर। सुरगुरुसम कवि लसै जहाँ बहु गुन के आगर॥ तहाँ गोसांईखेर सवै गोस्वामिन को घर। रामनाथ तहँ वैध जाहि जाहिर सव भू पर॥ तिनके सुंवस प्रकट्यो सुकवी नाम चिरंजूलाल कहि। सुभ भारत को भापा करत सब पुरान को सार लहि॥१॥

१८६. चेतनचन्द कवि
(अश्वविनोदी)

दोहा-सम्वत सोरह सौ अधिक, चार चौगुने जान। ग्रन्थ कम्पो कुसलेस हित, रच्छक श्रीभगवान॥१॥ श्रीमहाराजधिराज गुरु, सेंगर बंस नरेस। गुनगाँहक गुनिजनन के,जगत विदित कुसलेस॥२॥ जाके नाम प्रताप को, चाहत जगत उदोत। नर नारी सुख मुख कहैं, कुसल कुसल कुसगोत॥३॥ बाजी सो राजी रहै, ताजी सुभट समर्थ। रन सूरे पूरे पुरुप, लहै कामना अर्थ॥४॥

१८७. चतुरसिंह राना

काहे को तू घर छोड़ा काहे को घरनि छोड़ी काहे को तू इज्जति खोई दरवेस बाने की। काहे को तू नंगा हुआ काहे को बिभूति लाई किन रे सीख दई तुके जंगल के जाने की॥ आदति को छोड़ि देता परेसान मति होता लिखि सुनि लेता एक चतुरसिंह १ हस्तति २ शुक्र और कवि ।