पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/११४

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज राने की । गोसा जारी एक लेता खाने को खुदाइ देता जो मैं फिकिर ना मिटी रे फकीर खानेदाने की ॥ १ ॥ १८८. नरय कवि साजि के सिंगार दर जाल गजमोतिन के सुन्दरि छबीली छवि जैसे क रति है न । मन के मनोरथ के रथ पै गमन करि पहुँची निकु जहाँ है न नन्दनन्द ऐन ॥ चैनराय व उर मैन के मरोरा उठे मीन ज्याँ घिना ही नीर लाज ते न वोलै वैन । फुलत गुलाब की गई थीं षिय पास अठ लागो चमकायन गुलाब चुकी सी दैन ॥ १ ॥ १८६. तुर कवि कैथों मि में मित्र मैं बताई है किरन ताते पूल्योई रहत अनुमान यह पायो है । कैों ससिमएडल में झाँई उदुमकॅल की कैधों हासरस निज नगर बसायो हैं ॥ दसन की पाँति फ़ेन्दकालिन की भाँति आयी सोहत है गति गन कोचिदन गायो है । मानॐ वि रवि तेरी वानी को चतुर रागी दोलर के मोतिन को हार पहि राये है ॥ १ ॥ १६०. चतुरविहारी कधि चतुरधिझारी पे मिलन भाई बाला साथ माँगत है आजु कश हम पे देवाइये । गोद लेहु फूल देहु नीके पहिरराय मोती पानन की प।तरी हुताखून ल आइये ॥ ऊँचे से अवास के झरोखे चन्दि वैठिये जू सेज स्याम चलिये रति पति ध्याइये । ग्वाल समुझाइधे को उत्तर जु दीन्हे एक उकृति विसेष भाँति बारी नर्ति पाइये ॥ १ ॥ ११ चतुरभुज कवि कवर्दी छुचि दीपकली सी लगे कबहूँ बर चम्पकमाल नवीनी । भौंदन में सब साँ करै पुनि नैनन खंजन की छधि छीनी ॥ १ विकूप करने ।२ सूर्य ।३ नक्षत्रमंडल ।४ आग । -