१०४ शिवसिंहसरोज सव साज सॉं। कहत जवाहिर संनेह की कवच का सोच पोच नाखि हठ रोौ प्रग लाज स ॥ नूपुर नगारे शानि पहरें निसान भान उदै भिौ कुच भूटत दराज सर्च । धारि पल ढाल कर वाल के कटाच्छन को रतिरन जीतौ आज वीर ब्रजराज स॥१ ॥ कंचन भूमि के बीच बिराजत मानौ अभूत जराय जरो है । स्याम समूल कलिंदजाकूल सु पत्र सुखेद जु फूल हरो है । आजुलाँ ऐसो न देख्ो मुन्यो वज में जिदि आनि नकास करो हैं। कौतुक एक विलोकिये आनि के अंब कदेव की डार फरो है !२॥ २१२. जगन कवि अंग अंग औयट न घाट है बनाइये को लालन को तृषा है। आधररसपान की ।ह की मरोरनि में भर से परत जात त्यौरी की तरंग से निडरता निदान की ॥ जगन गहत सीं न उतरन थाह किएँ ऐसी गरखीली है हठीली वृषभान की । रिस के प्रवाह रस कूलन विदारे जात नदी सी उमईि चली मानिनी के मान की ॥ १ ॥ २१३ जनकेश भाट मऊ बुन्देलखण्डी सरद के इंदु सम आनन अमंद अति वपु अरबिंद पै.मलिंद मन नाह को । अगर दराज छवि छाज छकि रह बैल छाजत छटान रोम छिति पर छाह को ॥ कहै जनकेस कवि जाहिर जहान बीच जांतिम जरूर जौन गहत गुनाह को । मनमथमंदिर पुरंदर तिंया ते सुचि सुंदर सरूप सो न करें गलबाँह को ॥ १ ॥ राजप्त विभूतिमान गंगाजलप्रिय सदा सोंहत नगन भाव भांवत गनेस को । राधे दृिजराज़ सीन दान में प्रसिद्ध बड़े लचित्र को ताप मन चाहै सब देस को ॥ आनन के आगे आनि गवत अलीसगन पावत दरस सर्वे बरनौी मुदेस को । कीनो है कवित्तु हमें राजा रतनेसयू को करि को कड़त को कहत गनेस को 7 २है। A
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