पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४०

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज १२१ ( दोहती रसायण ) दोहा-रामनाम मनिदीप थरूजीहदेहरीद्वार । तुलसी भीतर बाहरहु, जो चाहसि उजियार ॥ १ ॥ रामनाम अवलंब वित, परमारथ की आस । वरत बारिद द गहि; चाहत चढ़न अकास ॥ २ ॥ ( ब्दावलीरमयण ) सुंदरी बंद राजत मेधेक अंग महावघि । गायत हैं पुति सेस सर्वे कवि ॥ बालविनोदक देव करें कल । जो सुनतें जरि जाहि महामल ॥ ( घरवैरामायण ) वरव चंदे चरण सोरेज तब रघुवीर । मुनिललना इख नाव गया कुल धीर ॥ सियमुख सरदकमल जिमि किमि कहि जाय । निति मलीन वह नितिदिन यह विकेसाय ॥ (गीतावलीरामायण ) रघुवर सेतु बँधायो - सागर । वालि सपूत दूत पठयो लखि वल-युधि-नीतिउजागर । को कहि अंगद क्यों आईयों हिंतु पितु तब ही को गागर ॥ सुनत हँस्यो न सहो पग रोयो टरयो न गो लघुतागर । रावनसभा तेज तुलसी आइ द्वारचो नागर ॥ ( कवितावलीरामायण ) करकंजन मंडु बनी पहुँची अतुही सर पंकजपानि लिये । लरिफा ढंग खेलत डोलत हैं सरजूतट चौहंट हार हिये । तुलसी अस बालक सो नईिं नेह कहा जप जोग समाधि लिये । १ श्याम ।२ प्रफुल्लित होता है ।