पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४२

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंह सरोज १२३ कहै कौन- मुर नर मुनि जाने कोइ कोई ॥ सुंदर मुख मोईि देखाउ इच्छा अति मोरे । मम समान न्यgज बालक नर्ति तोरे ॥ तुलसी प्रभु प्रेमविवस मनुन रूपधारी । बालकेलि ली नारस ब्रजजन हितकारी ॥ १ ॥ दीनदयाल दिवाकर देवा । कर मुनि मनुज सुरासुर सेवा । हि-तपकरिकेरि करमाली । दहन दो दुख दुरित रुझाली ॥ कोक कोकनदलोकप्रकासी । तेजं-प्रतापरूप-रस-रासी। सारथि पंगु दियरथ गायी ।. हरि-संकरविधि-प्रतिस्वामी ॥ बेद पुरान प्रगट जस गावें। तुलसी राम भक्ति बर पार्ट्स ॥ २ ॥ २५७. तुलसी (२ ) खायो कालकूट , भयो अजर अमर तन भवन मसान थे। गादरी गरद की। डमरू कपाल कर भूषन कराल ज्याल बावरें बड़े की रीति बहन वरद की ॥ तुलसी विसाल गोरे गाIत वि लसत नृत्ति मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सद की । धर्म अर्थ काम मोच्छ बसत बिलोकनि में ऐसी करामाति जोगी जागता मरद की ॥ १ ॥ २५८ तुलसी (३ ) श्रीओझाजी जोधपुरवाते नेक मानै न सीख अली भली भाँति सिखायति' धाय सुजान री खेलति है गुड़ियान को खेल लिए सैंग में सजनी सुखदान री ॥ मै तुलसी ' तिय के गैंग में झलकी तरुनाई इतै उसे आन री । नैन लगे कई पैने से होन' गही अधरान कलू पु सकान री ॥ १ ॥ १ पाप का समूह-२ गतिहीन । ३ भस्म।