पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१२९
शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरो १२8 को नलेस है । जाको राज राजत सुमन सय साधु जन सुमन सन से सरस सुवेस है ॥ सुन्दर बलंद भाल पूरन प्रताप जको जाकी ओर देखे और सूझत न के स है । 1 फूल्यों चहुं ओर देस- देसन में तेज पुंज आंचल नरेस मानों दूसरे दिनेस है। ॥ १ ॥ २७०. ताज कवि बलबीर कह। व एतो कियो अवला तेजियो बल हैंबलिहारी। ताज कहे चलित केलि के कुंजन थावत ही बृषभानदुलारी ॥ करि केति जो एतिक फैन के जोर परी भार न साँत सँभारी । मनों बाहि याकुदिनी ताल स नाल सों मंल मीडुि के ढा।१। २७१. तालियशाद कवि मध्ष बागे सुहागे बने हैं & मोहनगरे माल फूल हिये हैं । ‘मना रंग माने आमाते मदन के विलोकत बदन दौर चंद्रन दिये हैं । यही मेरा देिववृकुटी तुम्हारे घु लकु भर लेख या लख लिये हैं । दिवाना हुआ है निमाना दरस काड तालिश वही थाम गिरिधर लिये १ २७२. द्विजदेश, महाराज मानसिंह व दुर, शाकद्वीपी, अवधनरेश ( टंगारलतिका ) मध' विकसे बन बैरी बसंत के बातन ते मुरझई हुती। दि मदेव ताहू मै देह सर्वे विरहनलज्वाल जरई हुती ॥ यह साँघरे राबरे नेह साँ अंगन प्यारी न जो सरसई हुती। तो मै दीपसिखा सी नई दुलही अब तो कब की न बुझाई हुती -१ ॥ चाहि है चित्त-चकोर दा खुति आापनो दोप परोसिने लैहैं । ये दृग अंबुन से अफ़लाइ कला विशेड की झइ हैं । ऐसी कसामप्ती द्विजदेव अली अलि के गन गाइ सुनैहैं । हैद सु कौन दसा तन की जुसे भौन बसंत ताँ कैत ने ऐहैं ॥ २॥ ५ १ चला ।