पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५९

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शिवसिंहसरोज

१४० शिवसिंहसरोज २६४. दयानिधि (३) ब्राह्मण पटनानिवासी कुंद की कली सी दंतखनि कौमुदी सी दीसी बिच बिच मीसी रेख अमी सी गरकि जात । बरी त्यों रची सी विधी सी लवें तिरछी सी सी कॅखियाँ वे सफरी सी फरकिजात 1रंस की नदी सी दया निषि को न दीसी थाह चकित अरी सी रति डरी सी सरकजात । फन्द में फसी सी भरि भुज में कसी सी जा के सीती करिबे में हुघासीसी सी ढरकि जात ॥ १ ॥ २६५. ब्रिजराम कांच जस को सवाद जो पै सुभो कविआनन साँ रस को सवाद जो पै और को पियाइये । जीभ को सवाद वुरो बोलिये न काहू कहूँ देह को सवाद जो नैिरोग देह पाइये ॥ घर को सबाद घरी को मन लि ये रहे धन को सपाद सीस नीचे को नवाइये । कहै विजराम नर जानि के अजान होत नैब को सवाद जो मै और को खाइये ॥ १ ॥ २६६. द्विज नेद केवि गौन की नबे नी तू भवन ते में माहिर हो छुच तेरे कंचन मनोजकुति हरिहै । फूल ऐसी माल औ दुकूल ऐसी चपता सी ललितन देखे चिलन सी नजरि है ॥ कहै विज नन्द पारी पूतरी छाये चलौ अब तौ ये तेरे नैन रीि पखान फरि है । ऐसी - वाती तू तो नेक ना डराती काहू छाती ना दिखाउ को छाती फारि मरि है ॥ १ ॥ २६७ दीनदयालगिरि काशीवाले बीर कलिंदी के तीर नीर वीच निरख्यो में तीरंद नवल एक करत कलोल । करव बिहाल चित्त चोरि लेत दीनद्याल चमके १ क्रोध से भरी /२ मछली । ३ चमक । ३ बेहया । ५.मेव ।