पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१७१

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शिवसिंहसरोज

शिवासिंहसरोज ) - ३१३: धनीराम कवि एक पग ठाड़े के के जल अधिकारे बीच ‘सकुल विहारे गति .भागे ताप घन की । बदन उघारि सूर और ही निहरे घनसन .ब्रत ारे ना बिची रीति प्रन की.॥ आज लौं ने ऐसी भई कैसी करों धनीराम औसर बिंचांरि साध पूरी भंई मंन की ।संग की अटी रहीं पिंगे महें जूटी - कमलन लूटी बबिबाल के बदन की.॥ १ ॥ बदन बिदुरै सुधारस अवलो कंज़ बिकचनिहारें नैन चार्टी समता ठये । चाँदनी की तेरी हंाँसी सप कहि गने बिंब ओठन बखाने बैन कहत नये नये ॥ धनीराम अंग उपमान ‘यों विलोकि लाल‘होत हैनिहाल बाल बावेरे से है-गये । दूती के ‘बचन सुनि ‘चातुरी ससाने कछ मरम न जाने नैना अरुन कहा भ२ ३१४: धुरंधर कवि मदन महीप-के-बिचच्छन नजरबाज़ पीछे लगे आवत छपद करै सोर ’ हैं। सुक॰िधुरंधर भनत अरंबिंदवन चौकी भरे चंप 1 चमेली चहुंओर हैं ॥ सब ‘ही के स्वारथ के सकल सुगंध सिय- राई सरबत के हरैया बरजोर हैं।कहाँ के समीर थे . लगाये चले जातःमतयाचलते चंदन के चोरहैं ॥ ११ ॥ ३१५.धीरकवि कब्यो सेल गादि साहि आलम समत्थ साह : पत्थ से सुअर्ट अट्ट ऑरें भारी भरको। धौंसा की पुकार धसकत धराधर.धीर धरांस को घरंकि तेंजे धर को 1] ब्रहमेंडमेड़ में दंड है अदंड 'बचेंखंडन" के मंडलीक मिलें तजि घर को। बीरनिंधि छक्ति बंबंलि बीटें छिति छाई मानो तापंहीन तारागन टूटें तंर को it १। प्रबल प्रचएड सारतएडे त उदएड तेज वृदय बंरिवएड सहि Aa

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