पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२०३

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शिवसिंहसरोज

१८४ शिवलिंइसरो कायर कोपि चढ़ रन में तो कहाँ लागि चारन चावं चनावे ॥ जो पै गुनी को मिले निगुनी तौ पुखी कटु क्यकरि ताहि रिझावै । जैसे नपुंसकनाह मिलै तो कहाँ लगि नारि सिंगार बनाने ॥ ३ ॥ ३८८, पर्वत कवि फैति रहो बिरहा चहुं ओर से भाजिशें को कोड पार न पावै। जानत हैौ परबत्त सबै तुम जाल को मीन कहाँ लागि घावे ॥ चहें कक संदेसो कचो तो जी महें आवत जीभ न आंवै । उधोलू वा मधुसूदन सों कहियो जो कल हैं राम कहाँवै॥ १ ॥ ३८६. पृथ्वीराज कवि कै पृथीराज बिश्यो अलि को गन के घन की उमड़ी ठटियाँ। के नग .सों मखतूल सिंहासन के सनि मंदिर की टटियाँ ॥ के विर्द्धि ब्याल बुरे फन स फन आननचंद अमी डटियाँ । के दल काम को रोकन को ति को पटियाँ तमकी घटियाँ ॥ १ ॥ ३७०. पद्मनाभ हेली नव निकुंज लीला रस पूरित स्लीवल्लभ बन मोरे । रॉग रविपुन किंप न घन दामिनि दुति फल फलपति दौरे ॥ करत अबेस विरह बिरहिनि सुति भूतल बहुतक थोरे । पद्मनाभ मथुरेस बिचारत स्लीलछिमन भट सुत ओरे ॥ १॥ ३६१. पारस कवि लाग री ना इन बातन में हरि आये हैं जालु बड़े निसि भाग री । भाग री बैरिन की चरचा ते तर्ज गुर्गे मान पियारस पाग री ॥ पैगरी सोहै न पाँयन में कविपारस तू तो है बुद्धि की आगरी। आग री ला तिहरे हदें मनमोहन के उ िकंठ सौं लाग री 17 १ ॥ १ दो । २ सांप । ३ सखी। ४ भारी । ५ पगड़ी।