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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२०८

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शिवसिंह सरोज १८९ दिल दारा लौं । विक्रम समान मानसिंह सम साँची कहीं प्राची दिसि भूप है न पारवार धारा लौं ॥ ११ ॥ कूना टेरे झूनागढ़ पूना में पुकार परै माँगत पनाह जाँपनाह फिरंगाने का । कासी कासमीर सिंधसूरत हिसार हाँसी हाँक सुनि जात कि मौदेिं पुगलाने का ॥ पंडितप्रवीन कहै हिम्मति काँ तो भूप दन को लाल भयो ढाल हिन्दुआने का अंग बंग कुल्लू कहिलूर में जहूर जंग जानत जहान मानसिंह मरदाने का ॥ १२ ॥ कैसे हू न विक्रम को विक्रम घटन देतो कैसे निज साको सालिवाहन चलायतो कैसे महमूद विषाल को बिगारि देतो लेतो लीनि हिन्द और गदर मचायतो ॥ गोरी के गरूर ते न गारद पिथौरा होतो अहमद दुरानी-की कहानी कौन गावतो 1 नंदन पुरंदर के दस्ननरेन्द्र वीर तो सो कहूँ नायव जो दिल्लीपति पाठतो ॥ १३ ॥ ३६३, प्रियदास त्राह्मण शृंदावनवासी ( नाभा के भक्तमाल का तिलक बनाया उसी का यह कबित है) मेरे तो जनमभूमि भूमि हित नैन लगे पगे गिरिधारीलाल पिता ही के धाम में । राना की सगाई भई करी व्याह्नसामा नई गई मति ईि वा ाँगीले घनस्पाने में ॥ व परत मन सॉवरे सरूप माँ ताँबेरे सी आवै लिवे को पतिग्राम में पूढ़े पितु मां पट याभरन लीजिये जू लोचन भरत नीर का काम दाम में॥ १ ॥ ४००० पुरुषोत्तम कवि बुंदेलखण्डी कवि परसोतम तमाम लगि रहे मान वीर छत्रसाल अदभुत उद्ध ठाटे हैं । नादर नरंस के स्वाद रजपूत लड़ें मरें तरझुरें गज बादर से फाटे हैं ॥ सिंधु लोहूकुंडन गगन कुंडमुंडन सर्षों रिgएंड-मुंडन सौं खड सबै पाटे हैं । चरखी चखैयन के परखी समर वीच गरवी मगरवी से करवी से कटे हैं। ॥ १ ॥ १ पूर्वदिशा में । २ समुद्र तक । ३ सिर । के