पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२१३

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शिवसिंहसरोज

१३४ शिवसिंहसरोज तीरथराज है प्रापिन को कुलनारिन मैन भिखारिन भोज है॥ १ ॥ ४१४. विहारीलाल चौबे व्रजवासी । ( सतसई ) दोहा-मेरी भवबाधा हौ, राधा नागरि सोइ । जा तन की झाई परे, स्याम हरित दुक्ति होइ॥ १ ॥ सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल । यह बानिक मो मन बसौ, सदा बिहारीलाल।२॥ नहेिं पराग नहिं मधुर म) नर्तीि विकास यदि काल। अली कली ही सधे बिंध्यो, आगे कौन हाल ३ ॥ डारत ठोढ़ी गाड़ गहि, नैन बटोही । मारि । चितक चाँघ में रूप ठग, हाँसी फाँसी डारि ५४॥ कीनी भली अनाकनी, फीकी परी गोहार । तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारन तार II ५ ॥ ४१५. बालकृष्ण त्रिपाठी बताभद्र जू के पुत्र (१) ( रनचद्रिका पिंगल ) छत्प मृदबुद्धि परिहरिय हो पर दुःखदयामय । रमित जोग रस मार्षि दमित मन बच क्रम निरभय ॥ भक्ति हेत निज राम रचेउ. जे परम सुखद नर । खिसि न होइ जसु कवहि तिहूँ पुर ऊपर मुन्दर ॥ सुभ ज्ञान ध्यान वैराग रत तोष जोर दृष्णहैिं सिखित। तिन तीन पाँच षट बस करिय सुभ सूरति नरमप लिखित १ ॥ पंडित चित लाख दौर करत उर भरम सफर भर। जगत बसीकर अजिर दमित रतिपति करगा सर ॥ . ललित खंजगति सुढर सहित गुंजन पियमनहर ।