पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३८

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शिवांसहसराज २११ टोनकरिए दे गयी । जमुना के कू काल्दि मिल्यो हो अचानक ही जानि न परत कg बात मोरों के गयो । जब मैं विहल भई डोलैं. बनबीथिन में कहै बलदेव यह मैनबीज वै गयो । सखियाँ निगोड़ी कना बकादती हैं नन्द को कुमार हाय मेरो मन ले गयो ॥ १ ॥ ४५६ ड्रम काव कंचन के खंभ दोऊ सुग ऍगाय डाँड़ी मरुा पिरोना लाल पहुंली ख़री जरी। सोलह सिंगार किये झलक्ति हैं । पहिले सरस हार मच खरी खरी ॥ खन आसमान जाय धरती लगा पाँय फहरत चीर ताहि दावति घरी घरी । कहै बुधरम को है। नाथिया नवल ऐसी मानौ आसमान ते विमान लै परी परी। १.॥ ४६०. विहारी कवि प्राचीन (२ ) कब के बिहारी बलि करत हाहा री तू तौ करति कहा री समै सरत बिचरिये । जग की जियारी दया देखि घटा कारी उठि आये बनवारी तू कहें तौ पाँ पायेि ॥ जिन्हें देखि ही वन ारी मृगनारी सारी काम की करारी सर्वे मेम मतं वारिये । कारी कजरारी उजियारी अनियारी झपकारी रतनारी प्यारी गाँखें इसैं डरिये ॥ १ ॥ ४६१: बलिऊ वि नैनन को कनरा चनबूर है नैक विलोकनि में सिडयो परै । केसरि भाल के बीच को बिंदु जराव के जोधन सकें घिथुयो परे ॥ वेसरि के मुकता बलिच अविसों कि ऋषि झुक्यो उचयो परै । नौनि को रंग सोहैं वतानि मनौ बसेंधा सुधा निडयो परें 1 १ ॥ ४६२. ब्रजलाल कवि गुमड़यो गुलाल औ अवीर की धमक छाई सुन्दर सहेली हियो ग्रंगअंग सस्पें । नंद को कुमार वातघातन साँ सैन मारें केसरी पिचक मैं मानौ मैन दरसे ॥ वृंदावन रसिक चकोर सय १ घूमती हूं। २ बन की गलियों में ।