पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३९

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज ब्रजलाल सुर नर मुनि सब देखिये को तरसे 1 होरी अंक जोरी में पियूष अवनी पै आजु राधामुखचंद पर झलाल बरसे ॥ १ ॥ ४६३. बनवारी कवि यानि के सलावतिराँ जोर के जनाई बात तोरि धर पंजर करेजे जाइ करकी । दिलीपति साह को चलन चलिवे को भयो गाज्यो गजसिंह को सुनी है बात बरकी ॥ कहें बनवारी बादशाह के तखत पास फरकि फरकि लोथि लोथिन सर्षों यरकी । हिन्दुन की हद सह राखी अमर सिंह कर की बड़ाई के बढ़ाई जमघरे की ॥ १ ॥ नेह बरसाने तेरे नेहरू बर साने देखि यह बरसाने बर खुली बजचेंगे । साबु लाल सारी लाल करें लालसा री देखिचे की लालसा री लाल देखे सुख पाँचेंगे ॥ तू ही उर वसी उर वसी नाहीं और तिय कोटि उरयसी त ितोसों चित लायेंगे । सेज बनवा री बनधा री तन ग्राभरन गेरे तन वारी बनवारी आज आदेंगे ॥ २ ॥ ४६४बिश्भर कवि केलिकलोल में कंपति हाँ ज, बेलि सी खेति सकीं न करे । जानें न हाँसी मिलौंझिय खोति न बोल न विलासी के टेरे ॥ जबषि ऊँचे उरोज नहीं घु विभर हों सकुचाँ मुख हेरे । तषि मानि महा बुख काहे व संतत कंत बसें ढिग मेरे 1१॥ ४६५भरलिक, कवि अकि चंली है पग मटकि धरति लरिख पायल की झनक खुटौन अनटकी । छीन कटि पीन कुच मीन से नयन सखि सकुचि सटकि चली गली है निकट की ॥ वल्लभरसिक लख़ि चटक बदन मैं उलटि पार जुग धार मरवकी । सकी ललन तक न टिकी ललन-मति लट की लपट में लप2ि आइ अटकी ॥ १ ॥ १ कटरी का भेद ।