सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२३२
शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज सितासित तरंगन में भारे हैं । प्यारी तेरे मान टैग पानि पर सान धारे फेवर कससे वे कमानयारे दार हैं । ॥ २ ॥ ४४६. कवि जब नैनन मीति ई ठग स्याम सयानी सखी हठ यों बरजी। नहिं जान्यो वियोग को रोग है यागे की तब दाँ तिदि गें तरजी। । अब देतु भये पट नेह के याले सर्प ब्योंत करें बिरहा दजी । नजराजकुमार बिना मुड अनंग भयो जिय को गरजी ॥ १ ॥ ५००भरी कवि जिहि मुच्छन धरि हाथ कदू जग सुजस न लीनो । जिहि मुन्छन परि हाथ कलू पकाज न कीनो ॥ जिदि मुच्छन धरि हाथ कलू पर-ीर न जानी। जिदि मुच्छन धरि हाथ दीन लखि दया में यानी ॥ पुच्छ नाहैिं वे पुच्छसम कवि भरमी उर जानिये । नहिं बचन लाज नर्ति सुज स मति तिदि मुख छ न जानिये ॥ ५०१. भगवान कवि सजनी रजंनी रतिरंग जगी मनमत्थ कला करि नारभदी । परिरंभन चुंबन अविलास प्रकास महा छषि केलि दी ॥ पिंय की नखरेख कपोल लगी उपमा यह अद्भुत ताछ डटी । भगवान मनौ परिपून चंद में न्याय के वैजकला प्रगटी ॥ १ ॥ ५०२, भीषम कवि नंद बवा कि सॉ मारिहाँ ऐंटि उत्तार के तौ गहनो सब हों। भाह कमान काहे चढ़ावति नैनन डाँटे ते हों न ड्रैहीं । देखत ही छन एक में भीष्म पालन दधि दूध लुटैहों । ग्जरी गोल न मारु गॉरि हों दान लिये बिन जान न देहों ॥ १ ॥ १ रात । २ बढ़चढ़कर बातें न कर ।