पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२५५

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शिवसिंहसरोज

शेॉसहंसराज कहीं सघ ही विद्युषबुन्द परिवनिज मनगति । कहियो विचार नहीं मनहि परि रहों विना बुनि जाने कहे सभा से वाको आति ॥ २ ॥ ५११. भासंह कवि पश्चावाले कट्टन कलस के कलसन के चनदपट्टन चवई दहपट्टन कपट्ट के। गट्टन गनीमन के गीचिन के रट्टन श्रघट्टन सुघर्टन सुपट्टन अघx ॥ भमैं भोलासिंह वीर बाघ के वन के गाइ नगरदन पसंतन सुघर्ट के। वनदलात्र भव की पटवदौ जुगुलकिसोर गढ़ परनाविकट्टके 1१॥ ५१२, आघन कवि, भवानप्रसाद पाठक मौरावाँवाले पढ़न न देते हैं कवित्त बाजे भाषन जू बाजे चुपचाप सुनि नीमि सी अड़े रहैं । बाजे द बीस गूढ़ पूछि दृष्टिकून को सूढ सत सा खिन की चरचा भी रहें ॥ वाले अफसोस करें वाने रति रोस थेरें बाजे के भरोस दरबार में नौ रखें । बाजे सूम स्का देत पाथर लगाइ छाती बाजे स्यूम साहब सुपारियो पवें रहें । ॥ १ ॥ घx सी चूनरी रोई की कंचुकी तैसे सिंधौरा सिंदूरन चोखा । घ कवका लहंगा घरा भावम पायो परा कहूँ तागभरोखा ॥ री परें क्कर ते सरकी तरकी रकी सब बात में धोखा । नेगी कहें हम आजु लक्यो यह छूम जतीम चलाउ अनोखा ॥ २ ॥ ( काव्यशिरोमणि ) सरि झुग गज देत मिलै सुभ मौलिकईतन सर्षों सुभ चाल है । आ।उन लेत सदा परिधान को आसन को मनमुदित खाल है । । माल सनीन की देत मिये नित छाप लपेटत अंगन ३याल है । भावन भावती के सुखदायक संकर सो कहु कौन दयाल है ।॥ १ । ॥ चावत ही लुभानु के लोग सड़े सकुचेंदुख चहैिं री। 86 सराहि कहैसुख ने आठ तप की- था महा थपिएँ ।ि छा: बसें तन में प्रति व्याकुल ते तन जाइ कहाँ छहैिं री ॥ पंचढ़ , है है. महाँचतत्व जो भावन यो हीं ढो तपि, री ॥ २ ॥

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