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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२५७

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज ५१४. भगवंतराय कवि (१ ) ( एसयणचंदरकाण्ड ) पुघरनगिरि सो सरीर सभा सोनित सी ता झज्ञझलै रंग बाल दिवाकर को दलसघनवनदहनकृस महा भ्ोजों विराज सान अवतार हर को ॥ भमैं भगवंत पिंग. लोचन लालित सोहैं कृपाकोर हेयो बिरदैत उधे कर को 1 पधन को पूत कपिचकुल पुरंत सदा समर सपूत बंद दूत रघुवर को ॥ १ ॥ गाढ़ पर गैयर गुहारिखो विचारयो जब जान्पो दीनबंधु कहूं दीन कोऊ दति गो। जैसे हुते तैसे उष्ठि धाये करुना के सिंधु अस्त्र सत्र वाहन विसारि के विमाल गो ॥ भमै भगवंत पीछे पीछे पऔिराज घाये आगे प्रतिपच्छि बेदि आयुर्घ उछलि गो । जौ लौं चक्रधारी चक्र चाहो है चाइवे को तौ लौं ग्राहग्रीव अगारी चक्र चलि गो ॥ २ ॥ ५१५, भगवंतकवि (२ ) रात की उनींदी राधे स्रोत सकारे भये झीनो पट तानि परी पाँघन ते मुख से सीख ले उलटिवेनी कंठ है के उर है के जादू है छवानि केके लागी सूखे रुख ते ॥ सुरति-समर करि जोधन के महाजोर जीति भगeत अरसाघ राखी सुख ते। हर को हराय मानौ माल मधुकरन की राखी है उतारि मैन चंपा धनुखते ॥१ ॥ कट्टरो ताजिनो बीन ना बानिनोभिच्छु लाजिनो भाजिनो देवा। माह के मास में फूस को तापनो भूत को ज्ञापनो झाँझरो खेवा ॥ भर्त भगवत एते नहीं काम के जे नहीं राम के नाम लेवा । वर्मा को लूटनो स को लुटनो घूम को घुटनों सूम की सेवा ॥२II चल री संयानी नै सिरानी सब लाज जात मानी बात तेरी नेक रुति सरसानदे । नूपुर उतांरि छोरि किंतिनी धरन दीलै नैनन में नींद नारि नर के समान दे तो तू तो ध्रु धीर तो लौं में तो सजी चीर १ दैत्यवन जलाने को अग्नि व २ वानरेन्द्र । ३ गरुड़।