पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२६५

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शिवसिंहसरोज

४६ शिवासिंहसरोज 30 मोहन वखापें चारु रे गुनपरमान । इन्द्र के जयंत, रातित कृष्णचन्द्रजू के द्र के खड्रानन) समुद्र के कुलौनिधान ॥ १ ॥ दाधि दल दक्खिन मुसिक्खन समेत दीन्हे लीन्हे गहि पकरि दिलीस दहलन में। रूस रुहिलान खुरासान हवसान तब तुरुक तमाम ताले तेज तहलन में ॥ मोहन भनत याँ विलाइतिनरेस तादि सेर रतनेस बेरि स्यायो सहलन में । जिईि गरेज रेज कीन्हे जाल तिहैिं हाल करि स्वस मचायो महलन में ॥ २ ॥ पीत पटवारे क्रीट गौहरनघारे गजनिगनवारे तरि कुधर ढंभरिगे । श्रृंगराग केसरि से सर बढ़े केसर में प्गमदारे ग्रेग चार उथरिगे ॥ मोहन भनत भूरि भूपन मछपेन के कारन सकन मुरलोकन में भरिगे । गंगजल ताला में अन्हात बार बाला वाके अंग भंग आला याते जीवजाला तरिगे ॥ ३ ॥ जानत हौ सब मेरे हाल आहो गुनजाल कहाँ कहा गोसे । चंघिरोध न संग सहोदर संग सखा सो लखा दिल दोसे ॥ उघम हल न भाल विसाल सो मोहन मोहन तेरे भरोसे । जामें रहै मम बाकमान सुजान सुजान धि क़रें तोसे ॥ ४ ॥ ५३०. मोहन कवि (२ ) तकत ही तांकी तेज़ सकत समर सूर जक्कत है हुक्त है थके देत चाली को। ‘छीन लैहै मद मदारन को मद करि घिरद बिहद पैज पारौ पेजपाली को ।। मोहन भनत महाराज जयसिंह तेरी तेग रनरंग में खिताबें खल अयाली को । सोनिर्मों को ताल भरे काली को कपाल अरु मुंडन की माल पहरावे मुंडमाली को ॥ १ ॥ कवे श्राप गयें ये बिसाहन बजारे बीच कवे बोलि १ कार्तिकेय । २ चंद्रमा।३ विों के । ४ सगा भाई । ५ रुधिर । ६ शिव । ७ खरीदने ।