पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२७५

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२५६
शिवसिंहसरोज

२५६ शिवसहसराज n ) आागम भो तसूनापन को मतिराम भमैं भर्ती चश्चल आँखें । खंजन के जुग सावक ज्य उडि आायत ना फरफाषत पाँखें 1१०॥ ऐरे मतिमन्द चन्द धिक है । आनन्द तेरो जो पै विरहीन - जरि जात ते रे ता ते । तू तो दोपर दूजे धरे है। कलंक उर तीसरे सखान संग देखौ सिर छापष ते ॥ कई मतिराम हाल जाहिर जहान तेरो बारनी के बासी भासी राहु के प्रताप ते। बाँधो गयो सथो गयो थियो गयो खरो भयो वापुरी समुद्र ऐसे पूत ही के पाप ते ॥ ११ | ५४६ . मंडन कवि, जैतपुर, बुन्देलखंड के ( रसरावली ) बैरी के निसान सुनि विरव्रि विरचि बेप नहर से लपक्षिक पुकार लागे बीर के । मंडन आंसू सिर गौर बाने बाँधे संने लोहे के गहैया ये सहैया भारी भीर के ॥ होन तागी महा मार हु चलन लाग तोप तरवार अरु ले चले तीर के दौरदौरि देखिों को गर्मी चर्बी लोगन की हाथ चले मंगद के पार्ट्स चले मीर के ॥ १ ॥ गरद के कुड ढो मारतएडमएडल लौं बाने फहराने जष ढिग यानि आरि के । ताकि तमकि तव राजे करजीले वीर विरुझाने खरुजाने जैसे वाघ थरि के ॥ मंडन विकझि लीनी घोरन की बाग.दीनी दौरि के दरेरे जैसे भादौं की लहरि के । जिततित वीजुरी से लोड लागे लहक न वसन यान लागे जैसे रांद झरि के ॥ २ ॥ आ गयो दवर औचकही हरघर अम्बर अनी के बरियार करिवर के । तामसी तुरूफ मान साहसी दवान की। किरपान घमासान मचे पर ॥ मंडन युकवि यह चाहत वाई जब जीत के नगारे बाजेबीतत समर के । चलत हिमाचंल ते a १ बच्चे ।२ दो का घर और रात करनेवाला । ३ पश्चिम दिशा।