पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२७६

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e शिवसिंहसरोज २५७ मड बजाई तो लौं डाक चौकी डाकिनी हाथ डायो हर के 1३॥ यों झनकार चुरी झनकी सुच ये मुनि का न आचाक जागे । उनई याँ घटा सी लटें चहुं ओर जो मोर लखे हुलसे रसपागे ।॥ लगीमुख मएडम यों नदियाँ उ पढ़े सब सीषि सुथा बड़भागे । यों कढ कामिनी वोलन लागी लु ऊतर देन कबूतर लागे ॥ ४ ॥ रूप की रीझनि प्रेम पयो किधों रूप की रीझन प्रेम सों पागी। मंडन मैन जग्यो मनस बस के मनसा वस मैन के जागी ॥ लालहि लै कुलकानि भगी किधों लाज लिये कुल कानिहि भागी । नैन लगे बहि मूरति माई किधों वह मूरति नैनन लागी ॥ ५ ॥ उतै वह नंदत री अनखाति इसे यह सौति सुहागल शूति । सुसहैिं वीतत बार न लागत मंडन लाजन हाँ तो विनरति ॥ औरन को तौ मरू के सिरोति तक उनको यह राति न पूरति । प्यारे को जाड़ो सुहात है माई ताते कहावत सैन की मूति।६। रसकेति दुहन स होड़ परी कहूँ ङएडल डोलें कक तरौना । मंडन अंगन अंग मिले सुनि ऐसे थे सत्र का खिलौना ॥ नंदलता धरि ध्यान रहे वृषभानुलली क पावत गाँ ना । चित्र लिख्ो लखि चाहि रही झषयो तब बाघ छुट्यो मृगछना७ बादर के बीच विराजति है वीजूरी कि गोरो ग्रात गोरी को गोपाल सों मिलत है । रस ही के रस मुख मुख सों मिलत कैों सोरह कला को चन्द तौल ों हिलत है ॥ मंडन हिये की खौरि ढरकि पसीजि किचरें देह में से:यारो के कै नेह पघिलत है । दृष्टि दृष्टि मोती सीसफुल ते गिरत कैधों मेरी भाली तरनि तरैयाँ उगिलत है । ॥ ८)। मानि सबै मनुहारि बहू सुसाइ उठे गिया न उतारे। १ बतिती है । से