पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८२

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शिवासिंहसरोज को काहे को बनायो है । देख को चह्नो है के दियारी को पढ़ो है। के गुनीन को गदो है घिन गुने गरे आयो है ॥ कवि मनीराय ए उर ते उतारि दीजें दी कर मोहिं नेक मेरे मन भायो है । छवि की छला सो इंद्रजाल की कला सो करि हा हा हरि कहने ऐसो हार कहाँ पायो है ॥ १ ॥ ५६१.मानिक कवि कायस्थ, जिला सीतापुर कॅगिरात जम्हात प्रभात उठी परजंक मै प्यारी के अंग पुरे पड़े । इंग मुद्दे से माल खोले कईं कब हूँ तन सर्वे के बंद छुरे परें ॥ मानित मध्य तरौनन के चख मींगे दोऊ उपमा उभरे परें । पाप सहाय प्रभाकर है ज्ाँ सुधाकर सर्दी जल जात बुरे प* ॥ १॥ ५६२महानंद वाजपेयी ( भाषा दृहच्छिवपुराण ) दो—बंद गनपतिचरमरज) निसिदिन प्रेम लगाइ । विघन निवाएँ दुख हरें, सुखगन करें बनाइ ॥ १ ॥ संकरचरनसरोजरज, बंद कर जुग जोर । सदा हैं अनुकूल है। अगौं यहै निहोरि ॥ २ ॥ चाहे मैं बहु लखे पड़े श्रुतिवादा । मिटेढ़ न मन कर सकल विपादा ॥ नमत रहो मैं सब जग माहीं । संकरतध लद्दो कठं नाहीं ॥ ५६३मून ब्राह्मण कवि, असोथरवाले रोम स्याम सेत मध्य लोहित लकीर लमै मानों जुग मीन है। महीन लाल जाल सा । मून सुधामाधुरी त्यों अधर अरुनता में चिंघाफल फरहज फूल फीको फालसा ॥ झुली संग चली मोहैिं। आाषत गली में मिली लीन्हे करकमल में कमल सनाल सा। सांरी जरतारी की किनारी में छिपाये छवि आधो मुख देख्यो १ डोरा । २ पसीना ।३ कुंदरू i