पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८३

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२६४
शिवसिंहसरोज

२६४ शिवसिंहंसरोज आधो देखिये की लालसा ॥ १ ॥ उत् थाई नाइका नवेलिन विदाय यून इतं कई बेलिन ते स्या यह घाक ।। जुरिगे दुर्थी के डग लालची लगीले लोल ललित रसीले लोक-लाज को विदा करी ॥ पुरि मुसपयार्ड के छवीली पिंकवैनी नेक करत उचार मुख वोलन को वॉक । ताक री कुचन नीच काँकरी गोपाल मारी संकरी गली में प्यारी हाँ करी न ना करी ॥ २ ॥ कंजघन मामि मून हंसगन आइ फिरे गंध वन चैन की भंग करि डरे हैं । पाके फल जानि सुकपुंज पछिताने आइ पाइ के वसंत बात बृथा पात डारे हैं ॥ दूरि ते विलोकि अरुनाई श्रति फूलन की प्रामिष प्रकार गीध वायस विडारे हैं। ऐरे तरु सेर के सिफति तिहारी कहा आास दिये पच्छिन निरास करि डारे में ॥ ३ ॥ विम्ष में प्रवाल में न ईगुर गुलाल में न चस्पक रसाल में न नेछुक निहारे मैं । दड़िमयू न में न तन धरसून में न इंद्र की बम में न गुना अधिकारे में ॥ कुसुम सुर में न किंतुंक पतंग में न जावक मजीठ कंजपुंज वारि डारे में । राधेलू तिहरे पग आरुनसमानता को हेरि हारे कविता न आठत विचारे में ॥४ ॥ ५६४. मणिदेव कवि बनारसी मदन सजोरी ताहि जोरि कौन रूप और रातौ दिन जोरी भूरि भीति सी घिरति है । मिस के उठाय ताहि सुख सरसार जाथ भौन पहुँचाय जाय कांति की किरति है ॥ मनिदेव भनत नवेली के सुभाष को री श्रा के अकेली देख नेक ना थिरत है । गही पी फलंग पर सुंदर पलंग पर चार अलंग पर खसकी फिरति है ॥ १ ॥ याहू माहेिं संकर बनाये सिद्ध मंत्र सब तिन सों भयंकर घिलात तखि दुद को । मोहनादि होत सब तिनसाँ १ मंगल । २ घंघची ।३ टेस्ट के फूल ।