पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३०१

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२८२
शिवसिंहसरोज

२८२ शिवासिंहसरोज घिनही अडम्ब सम ख्यात ससंद है ॥ तंत्र तूल अनल पतंग मिलि होत जैसे कोप की किरन जैसे त्रिपुरनिकद है । नहीं परतंत्र है सुनैत्र रघुनाथ प्रड संग पाजू दावानल करत अनैद है।१। ६१८, रामसक कवि ( नृत्य-रघबमिलन नाटक ) सोरह सिंगारारो नील मेघ हूँ ते कांगे आवत प्रमोदबन सऋनी यह को है । चंदन सुगंध कान फूल तेल ज़ेलफन में अंजन लगाये नैन सैनन करि जोहै ॥ रैन बसन सन मोती मार्नि मानिक धनुष बान तरकस धारे अति सोहै । पाँ०न पनहियाँ लाल सोहै जड कामजाल रामसखे वाको रूप सबको मन मोहै lit ६१६. ऋषिराम मिश्र पट्टीवाले ( बंशीकल्पलता ) दोहा—उभय घरी दिन अंत में, गौरी लई आलाप । मोहि गई ब्रजनायिकायह बंसी परताप ॥१॥ वाँसुरी- अलापी जाय बन में बिहारी लाल ईमैन कल्यान सूर फाख्ता सुहायो री । भमैं ऋषिराम तहाँ काफी औ झौटी राग मारू औ केदारा सुभ सोरठ सुनायो री ॥ देस औ बिलावल विहाग बनकुंजन में भर के तरंगन में भैरों ठहराय री। साधि परती जड़ जानी रतेिं जाती काहू बंसीवट वैसी याणु भैरवी बंजाघो री ॥ १ ॥ दोह, -नवल किसोरी राधिका, नवल बैल ब्रजचंद । बंसीव बंसी धरी, अधरन पर गोबिंद ॥- १ ॥ कान्ह की बाँसुरीऐसी बजी मन मेरो हो सुधि ना रही प्रान की। मान की कौन गुमान करें अनुमान विचार कियो अतान की ॥ तान की तेग लगी ज़ि में हिय में अति सोच करै बृषभान की । भान की भौन को भूली फिरें जब ते परी कान में बाँसुरी कान की।१। n १ त्रिपुर को जलानेबाल ।