पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३०२

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शिवसिंहसरोज २८३ ६२०. ऋषिनाथ कवि रयाई सखी नवला को अराइ धर्ग डभग दारन लोके रटी ज्यों। देखत ही मनमोहन को भई पानिये में गई। वृद्धि घटी ज्य . पारे भरी थैकवारि पसारि विहारि को ज्णु ऋषिनाथ ठट्री ज्यों। याँ निकासी कर कुंडल ते नकुंडली ते कढ़ि जात नटी ज्याँ ॥ १ ॥ वन डंपठन निरवैर सर सोभासने श्रृंखैर अबनि कल बल बरसावनी । सजलवित चित थल बन बनी तारा पति सरिस जुन्हाई सुखदावनी ॥ ऋपिनाथ मालती मुकुंद कुंद कुसुमित बस पारिजात पारिजावलि पावनी । मन अरुझावनी रसिक रास रसरंग भावनी सरदनि सरद सुहावनी ॥ २ ॥ ६२१. रविनाथ कवि चूड़त बारि में आरीि दारि उवारि लियो प्रहलाद मयाहर । वे रविनाथ सनाथ कियो निज सेवक जानि से खम्भ से बाहर ॥ रूप घरयो नरकेहरि को हरनाऊस मारि गये जब बाहर । आनन देखि ढरी कमला लैस बेनी गह्यो मृगनैनी की नाहर ॥ १ ॥ ६२२, रविदत कवि रूठे क् न जन जाके मन में विकार बसें रूछे जातिपति और रूठे दुखदाइये । रूठे राष राना सवै जाना वही ठौर ही में टैं जो परोसी ताहि मन में न ल्याइये ॥ रूठे परिखार यार सारा संसार औ कविंद पूढ़ पंडित रविदत्त ना सकाइथे । एते सब स्टैं आइ हेंगे अँगूठो मेरो एहो रघुनाथ ए नू न रूठ चाहिये ॥ १ ॥ ६२३. रतनेश कवि मंजरिया लघु पाली खुली तिहि लेन की मोहैिं परी टक है । १ पानी। २ गोद में । ३ झरने । ४ सरोवर से ५ आकाश । ६ कल्पवृक्षों की कतार । ७ पिलैया ।