पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३०७

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शिवसिंहसरोज

२८ शिवसिंहसरोज - s अब तौ छलछन्द की वानि तजौ सि-योति के चित्त उमाहिये । रसिया कर जोर करें चिनती कद्ध और मैं नर्वीि चाहिये औ। यह प्रेम की आँखें लगीं सो लगीं पै कुलीन ज्यों और निशाहिये लू।१ । ६३४, रूप कवि कैधों तली वेला की चमेली की चमक चारु कैधों कीर कमल में दाड़िम दुरयों है । कैध हुति मंगल की मएडल सथक मध्य कैधों वीजुरी को बीज सुधा में सिराय है ॥ कैध पुकताहल महावर में बोरि राखे कैच में न-नुकुर में सीकर हाय है । रूप कवि राधिकाबदन में रद न छवि सोरहो कला को काटि बतिस बनायो है ॥ १ ॥ ६३५० रूपनारायण कवि रमि. के रतिमन्दिर में तरुनी रॉगरायटी में रसमाले कियो । पगिप्रेम में पूरि प्रवीन के प्यार सों सौतिन ही में दुसान कियो।। कवि रूपनरायन यारसी ले कर आनन ठे वसवाले कियो । अरविन्दन वैर कियो वरु लै मनो भा के इन्दु हवाले कियो।१। ६३६. रामजी कवि (२ ) चंथते चकोर चहुंओर जानि चंदमुखी रही बचि डरन दसन दुति दप्पा के 1 लीतेिं जाते वही विलोकि बेनी वनिता की ही जो न होती यों कुसुमसर कम्पा के ॥ रामनी लुकाषि ढिग “हैं ना धनुष होतीं कीर कैसे छोड़ते अधर विम्ष झम्पा के । दाख के से झरा झलकत जोति ज़ोवन की भौंर चाटि जाते जो न होती रहू चा के ॥ १ ॥ खेदकन जाली अंशुमैली की तपनि आली सुकी जानि खएडे ते अधर विम्ष बू हैं। वेनी जानि साँषिनी याँ चथी हैं कलापिनी ने वापुरी चकोरी को काले चन्द के हैं। रामजी मुफवि में पठाई तू न तहाँ गई वन्द कचुकी के काहू और १ मोर । २ सूर्य । ३ मोरनी।