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शिवसिंहसरोज
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शिवसिंह सरोज

जैहै सवै सुधि भूलि तुम्हें किरि भूलि न मो तन भूलि चितैहै। एक को धॉक बनावत मेटत पोधिय काँख लिए दिन जैहैं।। साँची छौ भाखति मोहिं कका कि सौ पीतम की गति तेरि हू हैॄहैं । सोसो कहा क्षठिलात आजाद्भुत कैहौ काकाजी सो तो हूँ सिखैहैं ।।२ा।

१९. अभिमन्य कवि

खौघि वढ़ी हरि श्रावन की मनभावन की उपजी जक चाकैं । काम की पीर वढी़ अभिमन्यु धेरै नहिं धीर यहै वक वाकै ॥ दे विधि पाखं मिलौ उडिजाय श्रघाय बुझाय हिये लगि वाकै। जोपरि पाँखनि पउ मिले सखी पाँख जु हें चकई चकवाकै ।।१॥

३०. अनंत कांव

कहौ एक बात वुरो जनि मानहु कान्हूहि देखि कहा मुसकानी । मै धौ कवे चितयों इहि और पै दाऊ की सौ तुप और गुमानी ॥ आपन सो जिय जानती और को ताते अनंत यहै जिय जानी । कहौ जु कहौ अलि जो कहौ चाहती दूध को दूध सौ पानी को पानी १॥ मनमोहन हैं जिन वे सुख दीने इतै चितयो चित भुलि न जैये । और सुनो सखी मीत मिताई की मीत जो बेचै तौ बेचे विकैय ॥ अनंत हँसे ते हँसे से विचचक्खन रूपे हँसे ते गँवारी कहैये । सान करौ तौ करौ धरी आध लौं प्यारी बलाय ल्यो सौंह न खैये ।।२॥

३१. आदिल कवि

मुकुट की च:क लटक विवि कुंडल की, भौंह की मटक नेकु ऑखिंन दिखाउ रे । एहो वनवारी बलिहारी जाऊँ तेरी मेरी गैल किनि आइ नेक गाइनि 'चराउ रे ॥ आदिल सुजान रूप गुन के निधान कान्ह बाँसुरी बंजाइ तन-तपनि बुभाऊ रे । नंद के किसोर चितचोर मोर-पंखवारे बंसीवारें साँवरे पियारे इत आउ रे ॥ १ ॥ १ विचक्ष-समझदार ।