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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३१३

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शिवसिंहसरोज

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निकसे नव निजेन जन ते गग अनंग के प्रेम जगे । किये कानन केतकी की कलिका कमनीय कपोल परागपगे ॥ लखियों चिधि राधिका माधव की भरि वारि वलाहक ज्यउमगे। बरसे नयना झरि लाइ भले निरखे तन को न निमेख लगे।१॥ उर ते गिरि मोतिनमाल परी कटि लागत कंठ तटी कल स। भृकुटी तट मेरि क6 छवि सरीं करनांबुज डारि भुजावल सर्षा ॥ अलवेलिय भाँति खुजावति कान खुरंग खरी छंगुरीदल स । तिरछे बलवीर हि बारह बार विलोकत बालबथू छल स।।२॥ ६५४. रतनपाल कवि दोह--जाके घोड़ा अनसधे, औौर सारथी फुर । ताको रथ पहुँचे नहीं , होय बीच चकर ॥१॥ भक्तिभाव ते की अवाँ, ज्ञानमगिनि तपि जाय। । रतनपाल तिन बैंटन में, ज्ञान आमी ठहराय ॥॥ पूजा के भगवान की, तिलक देत सिव हेत । सिंघ जावें हरि देत हैं, हरि जानें सिव देत। ३ ॥ माला तुलसी की धरै, तिलक लगावें आड़ । न हरि के ना रुद्र के ग्रंथा भये तजि भॉढ़ l४॥ ६५५, रूपसाहि कायस्थ, वागमहल पूनासमीपवासी ( रूपविलाल ) बुच्छन वल्ली चढ़ी करि चोष अली यूलिनी मधु पी मुदकारी। कोकिल सारिका कीर कपोत करें मुनि माधुरी काननचारी ॥ फूले सवे बन बाग तड़ाग भरे अनुराग प्रिया अरु प्यारी । चैत में चारु विहारु दसरथकुमार विदेहकुमारी ॥ १ ॥ सावन के दुखदाशन याँ घनस्याम बिना घन आति सतावै । १ बादल ।२ पज क । ३ घा और हृदय । ४ मैना । में