पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१०
शिवसिंहसरोज

३ १० शिवसिंहसरोज याँ दुविधान विधान के बीच में मोहिं लगा लई इन होड़ी । है कनकतुल वाल को अंग घंटे न वहै सम राखत जोड़ी ॥ ६ ॥ ६८५, लेखराज कवि, नंदकिशोर मिश्रराँधौलीवाले ( रसरलकर ) सनसन डोलै पौन सनसन सूख्यो सन सनसन अंग दुख सन होत हघरी । घनघन वीनि लीन्हो वनवन व्यौरि व्यौरि घनत न बरनत क्यों हूँ उर धरधरी ॥ लेखराज ऊरखऊ पियूप सों विसेस सेस राखि नादि अनिमेस देखि देखि करबरी । अब हरवरी सरवरी मिलें कैसे कंत आर हरी अरहरी अरहरी अरहरी ॥ १ ॥ राति रतिरंग पिय संग साँ उमंग रि उरज उतंग अंग भंग जंखूनद के । ललकि तलाक लफ्टाय लाय लाय श्रेम वलकि बलकि वोत वोलत उलद के ॥ लेखराज लाख लाख याभिलाख पूरे किये लोयन लखात लखि सूखे सुख खद के दोऊ हद रद के ठ देत छद रद के विवस मैनमद के कहे में गई सदके ॥ २ ॥ ( लघुभूषण अलंकार ) वरने लेस गुनौ गुन अवगुन गुन जेहि टर । नैन राग ना रुचि दुचि सुचि सुकठोर i॥ १ ॥ नैन कं सकटाच्छन नहिं मकरन्द । स्याम स्वेत अरुनारे करत अनंद ॥ २ ॥ सच निसिदिंन ल । कमल से नैना विना नाल के लोने खुतिहि दुकूल ॥ ३ । ॥ लेत गंगजल मुंडन खग तस हेत । राजत गोदी संकर जन सुख देत ॥ ४ -॥ ( गंगाभूपण ) अंग अंग सोभा की तरंग हेपुरंग रंग धीर है उतंग संग राजत