पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३१२
शिवसिंहसरोज

३ १३ शिवसिंहसरोज ए . ६८६. लोकनाथ कवि घनघने बानिक मो बरन बरन फूले लोकनाथ लक्ति लतन छवि छाई है । संजु मंजु मंजरीन गु नत मधुकुंज सृजन में कोकिला की कूकनि सुहाई है । ॥ होरी होरी करते किस्मोरी दौरी खेरी खोरी गोरी चल ताँ व बलि सुखदाई है । लटकि लडकि कान्ड बाँसुरी वजावत हैं एरी चलि देखिये बसंत ऋतु याहूं है ।१ ॥ ६६०० लाल (५ ), लल्लूज़ी कवि नागरे के ( सभाविलास ) दोहा-भात्र सरस सझत संवै, भले लगें यहि भाइ । जैसे अवसर की कही , बानी सुनत सुहाइ ॥ १ । ॥ नीकी 6 फीकी ल) विन अवसर की बात। जैसे बरनत जुद्ध में, रस सिंगार न सुहात ॥ २ ॥ फीफी नीकी ल, कहिये समय चिचारि । सबके मन हरखित करें, क्यों वियाह में गारि॥ ३ ॥ ६६१ लतीफ़ कवि चंद सों आागरी है छुख जोति बड़े अति नैन समासैम दोऊ । उदत हाथ में आाबत नादिन कैसे के जाय छिप कहीं कोऊ ॥ मावर्स रौनि की पूनो करें कल थोरक सो मुख खोलत सोऊ । देखि लतीफ यहै व्रजवान यु आावत री यह खेल के, खोऊ ॥ १ ॥ सघ रैन जगी हरि के सँग राधिका बार्लर वास उतारति है । अतिआलसवन्त जम्वाति तिया &गिराति भुजान पसारत है । सरकी चैंगिया जु हरे रंग की टु लतीफ़ महा छवि पारति है ! मंतु है जो पुरैनि के पातन में उरझो चकवा तेहि टारति है ।२॥ A a m १ गली-गली । २ समविषम । ३ दिन । ४ व । ५ कमल ।