पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३३७

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शिवसिंहसरोज

३२० शिसिंहसन ( द्रविनय ) आप को आपनही बिसगे । जैसे स्वान काँच के मंदिर अभि-भ्रमि भूकि मरो ॥ ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप ए । वैसे ही गज फटिकासिला सों दसनानि यानि करो । मरकैट aि छोड़ि नहिं दीन्ही घर घर द्वार फिरो। सूरदास नलिनी के घुघना कह कौने पक़करो ॥ २ ॥ दोहा -सुंदर पद कवि गंग के, उपमा को वरवीर । फेसब अर्थ—भीर को, यूर तीनि गुन तीर ॥ १ ॥ तन समुद्रसम नूर को, सीपभये चख लाल । हरि मुकुताइल परत ही, दि गयो ततकाल ॥ २ ॥ ६६. सन्तदास नजवाली माई कौन गोप के ये दोउ नागर ढोटा । इनकी बात कहीं सखि तोसों गुनन बड़े देखन को छोटा ॥ अंज अंकुंज सहोदर जोरी गौर स्याम ग्रंथित सिर चोट । संतदास वलि वलि प्रति पर लला ललित सवही विधि मोटा ॥ १ ॥ ७००. श्रीधर कवि (१ ) श्रीधर भावते प्यारी प्रवीन के रंगरगे रति साजन लागे । अंग अनंग-तरंगन स सब आापने आपने काजन लागे । किंकिनिपायलपैजनियाँ विछिया घखुरू घन गाजन लागे ॥ मंानो मनोज महीपति के दरबार मरातिबे बाजन लागे ॥ १ ॥ ७०१. श्रीधर (२ ) राजा सुबसिंह, ओोयल के ( विद्वन्मोदतरांगणी ) कारन भाव को भाव को रूप नंद रस पूरन के दरसायो । १ कुत्ता।२ बंदर । ३ बड़ा भाई । ४ छोटा भाई।५ नौबत।