पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३५२

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शिवसिंहस A n सय गवाही के खलक बीच स्याही लाई बदन तमाम वादसाही के ॥ २ ॥ हेरत ही हथिन के हलके रइ हैं रोरे सम घोरे रथ बहल विलावगी । मुहरें रुपैये पर मोहरें रहेंगी करी परी सी नित घिनी ते परी रह जागी ॥ पालकी में दाल की खपरि ना रहें गी जब काल के कलेवर की फौज उटि धावेंगी। सम्भुजू सिपाही माही चलत मगतव ते नौवति बज।इवे की नौबति न आयेंगी। ॥ ३ ॥ सीरी सीरी यही चर्थी मोर ने बयार बड़ी घटनि वगारि बड़ो आसरो सो दे रहो । याही हेतु छोड़ि के नदीन नद एते दिन तेरी आास गई तेरी ओोर तकते रहो ॥ नीर, तू आापनो विचारि देबु नाम सम्भू कहा ऐसे औसर में ऐसो झूठ रहो । गरजि गरजि हुलसायो दियो चातक को बुन्दन के समयनि मुंद मुख के रो ॥ है ॥ सारी हरी गोरे तन कैसी रलि रही देखौ तैो लोनो लहूँगा लहलहात ढोरी है । वैसे तरियन छोटे छुत कपोल ढोलें तैसी खुली नाक नथ मोतिन की जोरी है ॥ भरी थोरी वैस की सलोनी सुकुमार सम्ड के घों देह धरे चित चोरिवे की चोरी है । वसीकर मत्र कैध रूपघन्त देवता है के धौं यह वाम का ठग की ठगोरी है ॥ ५ ॥ ७२५. शम्भुनाथ (४ ) त्रिपाठी, ड़ियाखेरेवाले ( बैतालपचीसी ) दोहा-नन्द व्योम धृति जानि के, सम्वतसर कवि सम्ड। माघ ढंध्यारी बैज को, कीन्हो तत आर ॥ १ ॥ छवि कदम्ष लखि अम्ब : उमड़त मोद प्रखण्ड । कलखा करि करिखरषदन, फेरत डदए ॥ २-॥ S १ समूहये ।२ बादल । ३ भोली ।