पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६०

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शिवसिंहसरोज

सही सताये सागर उजारि जाने गढ़ पटना जाने तोरि डारे आग लहो । कास्मीर काबुल कलकत्ता औ कलिंजराज गौड़ गुजरात ग्वालियर गोद दे गएो ॥ सेवक कहृत और कहाँ लाँ बखाना देस जाके निरदेसको नरेस चित्त दे चहो । औनि के पनाह नगाह रतनसिंह को न नरनाह तेरी बहछह में रहो ॥ ॥ २ बड़े खेम साँ खेमकरी मड़रात सुदेत क् मंडल है घर । संय सेवक बहु विलोचन यों तानि दाहिने वाग दोऊ फरके ॥ कहिये हित के हित मेरी दिन कर के कत कंफन टू करके । द त्र के पट चुनी के तर दद अबु कहा संरके है1३॥ उनमें सनी को घर वालनि मनी को रूष छानि के बनी को । रानी रति हिया को मैं । भाष में भरी को रति रंग में डरी को गौरि सेवक ढरी को डरी मदनतिया को मैं ॥ गरब गही को रंभ मान की सही जो नित्त चित्त की चही को लही काम की क्रिया तो हैं । न्नि की धिया को जोतिजूह की जिया को वेस विधना । विया को कद पेंखिहीं प्रिया को मैं ॥ ४ ॥ ७४७संत कवि पिण सों की रसना विन का लगे गुन नाम समान तिहारे। न चले प्रति रूखे रहे तुम ताही ते नैन ये नाम धरा रे ॥ संत घिरोध बढथो अति ही जिय ते दुख नेक टरे नहिं टारे । पाइ गुलच्छन नाम अरे कर काहे को नंदलला झिझकारे ॥१॥ अधई चाँदनी अँधेरी अधऊपर लौं कोक अधसोक दिन आभा चढ गई । अमिटी मान मानिनी को सो विलोकि संत वाढ़ी नीरनिधि अवधि आष त्वें गई ॥ ता समै अटा चद्धि पिया को पंथ। की देखिये को अंग अंग मदन मरोर वीज लैवें गई । अधदे कमल १ चील्ह 1 २ सवेरे ।