पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६२

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शिवसिंह सरो ३४५ १ : के ही जू कॉन बनिता के हौ रु कौन वनिता के वनिता के संग जाम है ॥ १ । मन है तो भली घिर है रहि त् हरि के पदपंकज में गिर तू । कदि सुन्दर जो न सुभाष त फिरिपोईि करें तो इहाँ फिर तू ॥ मुरली पर मोरपखा पर कै लाटी पर है वृकुटी भिर तू । इन कुएडल लोल कपोलन में घ-से तन में घिर है थिर तू ।२in सासु रिसाति व ननदी सखि सखवें सिख सीख के बैना। है प्रजघास उखाघ महा चहुं ओोर चलें उपहास की सैना ॥ देखत सुन्दर साँवरी मूरति लोक अलोक की ली लव न । कैसी करों झटके न रहें चलित जात तलाख लालची नैना ॥३ ॥ क्रीट हुति कुण्डल कपोल गोल लोयन की वोलनि अमल हैरि हँसनि वा लाल की । राग ठे औी धपारि के मदार में न गावें तहाँ देखि जनारि बाँघरनि उन लाल की ॥ भाग आई भागि से भले मैं देखि भाई लल ताकि पिचकारी दृग चलनि उताल की । गों कुल गलीन में गोपाल गन गोष लीने आावत करत बीर गरद - लाल की ।॥ थे । ( सुन्दरहुंगार ) दोहानगर आगरो वस्त है , जमुना तट सुभ थान । तहाँ बादसाही करें, बैठे शाहजहान ॥ १ ॥ साहजहाँ तिन गुनिन को, दीने आनन दान । तिनने सुन्दर सुकधि को, कियोहुत सनमान 1२॥ नग धूपन गन सब दियेहय हाथी सिरसाव । प्रथम दियो कविराज पद, बहुरि महाकविराब । वित्र ग्वालियरनगर को, यासी है कविराज । १ मेघ । २ परिपाटी।२ बेशुमार ।