पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६३

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शिवसिंहसरोज

३४६ शिवसिंहसरोज ज़ापै साह. दया करें। सदा गरी'नेवाज ॥४ . सप्घत सोरह सौ बरस बीते चट्ठासीति । कार्तिक (दि पष्टी गुरुहि3 रच्यों ग्रन्थ करि प्रीति।।५। ७५१. सुन्दर कघि (२) कामिनी की देह आति कहिये सघन बन उहाँ त। जाई कोऊ भूलि कै परत हैं। कुंजर है गति कष्टि के रि की भय यामें बेनी कारी नागिनी ली फन को धरत है ॥ छुच हैं पहार जहाँ काम चोर बैो तहाँ साधि के कटाच्छ वान मान को हरत है । सुन्दर कहत एक और प्रति भय तामें राछसी वदन खाँव-खाँच ही करत है । ॥ १ ॥ नीर विना मीन दुखी और बिना सिहं जैसे पीर जाके दवा बिन कैसे रहो जात है । । चातक क्यों स्वाति चंद चंद को चकोर जैसे चन्दन की चाह करि सैनी अकुलात है । अधन ज्य धन चाहै कामिनी को कामी चाहै ऐसी जाके चाह ताको कलू ना सुहात है । । प्रेम को प्रभाव ऐससे गेम तहाँ नेम कैसों सुन्दर कहत यह प्रेम ही की बात है ॥ २ ॥ सेवक सेजेय मिले रस पीषत भिन्न नहीं अरु भिन्न सदाहीं है। ज्यों जल बीच घयो जलपिएड सुपिंडsरु नीर जुद कछु नाहीं । । ज्ाँ दृग में उतरी दृग एंक नहीं कछु भिन्न न भिन्न दिखाहीं । सुन्दर सेषक भालू सदा यह भक्ति परा परपेचुर माहीं ॥ ३ ॥ ७५२ शंकर वि (२ ) एक समै मिलि सूनी गली हरि राधिका संकर भाग भरे भर । . साहस ों उन हरि दियो उन सैकन-सं ाँ अं लई भर ॥ । १ सिंह से २ दूध ॥ ३ पचा। सर्ष । ५ जिसकी सेवा की। ४ जाय । ६ गोद ।