पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६४

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शिवसिंह सरोज ३४७ सौहैं अनेक करी सनी सिर हाथ दियो नर्वीि मानी इते पर । साहे से री मुनु मेरी भट्ट उन छाती हुई उन छोड़ि दियो कर 1१ ॥ ७५३. श कर त्रिपाठी, विसवॉयाल (३) ( रामायण कविस ) आज मत गये गुरु गेह को पाँय परे कहि आारत वानी। आसिष दीन्ही बसिष्ट तवे रप मुनिश्रुध्द महासुख मानी ॥ का रन का न वि चारो भली विधि की गति स कछु जात्ति न जानी। संकर भारत भौन नही यह देखि चरित्र रिसइ न रानी ॥ १ ॥ ७५४. शंकरसिंह गौर, चंडरवाले (४ ) हरी है संदें धि-बुद्धि हरी तिय सेज परी तन चेत न री है । नैरी है कहाँ रति रूप रतीक न सोने के साँचे ढरी उतरी है । मेरी है मनोज मदनद की मृ प संकर सोभित लाल डरी है। ढी है खरी यहि पावस विधुि-सोर सुने लखे भूमि हरी है 1१)। ७५५. संपति कवि कोटिन सस्प रूप एकड़ी करत जब जानत अचर देत्र कायर डहक ती | चंडपंडदेनी महिपकात कालिफा मुदामिनी दमक्ष सोई झारि के झहकती ॥ खाई खाई करत अघात न आगम जोति जोगिनी जमाति कई भति से लड़कती । दुष्टन के उदर बिदार के करेगे पर चह्नि-यदि रुधिर चभाकि के चहकती ॥ १ ॥ ७५६. शीत ल त्रिपाठी, टिकमापुरवाले ( १ ) बिहारीलाल कवि के पिता आज अकेली उताहिली है तट लौं पहुँची तुम नाई करार में । साथ सखीन के हाहा किंधे पग ने हूँ दिथो जलकेलि विहार में। सीतल गात भये सिथिले उछरी तौ मरू करि केतिक वार हैं । कान्हू जो घाइ रै न अली तो वही हुती हैं जमुनाजलधार में। n ) १ राम चंद्र । २ मनुषी । ३ नाब । ४ मोर ।