पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६७

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शिवसिंहसरोज

३५० शिवसिंहसरोज है ।

के २ नि प्यारी पौढ़ी हौ विलोकसौ आनि चारों ओर चाचंद मच्यों है।

  • रूसे सुनि ॥ १ ॥

७६१. सागर कडि, ब्राह्मण ( बासामनरंजन) जाके लगे टहकाज तज अरु मातृ पिता हित बात न रखें । ग में लीन है चाकर चाह के धीरजवन अधीन हैं भाखें ॥ तफ्त मीन ज्याँ नेह नबीन में मानों दई बरछीन की साखें । तीर लगें तरबार लगें मैं लगें ननि काहू से काहू की आंखें ।१ ॥ ज़ाके लगे सोई जाने विथा परपीर में कोल उपहास करै ना । सागर जो छभि जात है चित्त तौ कोटि उपाड करै टना ॥ नेक-सी कंकरी जा के परै सो पीर के मारे यु घीर व ना। । के से परे कल एरी भदू जन ऑवि में ऑॉखि परे निकले ना ॥ २॥ ७६२. सुलतानपठान, पाच सुलतान मोहम्मद न ( १ ) रामगढ़, भूपाल के आधिपति ( कुंडलिया-लतसई का तिलक ) मेरी भवबाधा हm राधा नागरि सोइ । जा तन की झोई परे रयात हरित दुति होइ ॥ स्याम हरित दुति होइ मि सव कलुकलेस । गिटे चित्त को भरम रहै नहिं एक गुंदेसा ॥ कहि पठान सुलतान काड जमदुख की बेरी । राधा बाथा हरी ढहा घिनती 3 मेरी ॥ १ ॥ नासा मोरि नचाइ ढग करी कका की ह । काँटे-सी कसकत हिये गड़ी कटीली भौंह ॥ गड़ो कटीली भौंह केस निखारत प्यारी। १ वफ़ा । २ जन्म-मरण की बाधा 1 ३ अल