पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३७१

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३५४
शिवसिंहसरोज

३५४ ग्रांसहसरोज n विधि सं आप सोच नहीं सपने में ग्रहो कर में हूँ उंटी दहें री मनमानी भई नहीं सेवक स तनि नैनन नींद दिी गई री ॥ २ ॥ हो कित कैसे काँ न लखें नित ऐसी विथा जिय जागती हैं। न गनाय गुनाय मनाय जनाय बनांय यही रेंग रागती हैं । कसके न सके कोहेिं कैसे हुई सेवक सोहन-सी दिल दागती हैं । परैतीन की सैन पुधा भरी बरछीन ते सौगुनी लागती हैं ।।३॥ ७७४. सघश्याम कवि कहा भयो जाने कौन सुन्दर सवलस्याम टी गुर्जे धनुष हूँ. नीर तीर करिगो । हालत न चपलता डोलत समीरन के वानी कल कोकिल कलित कण्ठ परिगो ॥ छोटे छोटे छौन नी नीके . . कलहंसन के तिनके रुदन से नवन में भरिगों नंॉलकैन मु दित निहारि बारि विद्यमान भानु मकर मलिन्द पान करिगो ।। ।। ७७५. सोसनाथ कवि सोने-को सरीर ता आासमानी रंग चीर औष कीनी रवि रतन तरौना है । सोमनाथ कहै इंदिी-सी जगम बाल गा कुष ठाई मानो ईस जुग भौना है ॥ कारी ठ्युरारी मन्द पटन झकोर लागे फरहरे नलक कपोलन के कौना । सो छवि आमंद गन पान सुखविन्दु करि इन्दु पर खेलत फभिन्दैन के चुना है ।। ७७६. शशिनाथ कवि गइ। मंगलचार घन सख आवत ीं तन ताप हाइहीं झाइहाँ पाँइ गुलापन सौं कमखाब के पाँबड़े पुंज बिछाइहाँ ॥ छाइह मन्दिर वादले सों ससिनाथ जू फ्लन की झरि लाइहाँ। लाइहाँ सौतिन के उर साल जट्ट सि लाल को कंठ लगाइहीं 1१। ५ ऋहा । २ पराई ली । ३ धनुष की डोरी । वे तरकस । मैं बच्चे ६ लक्ष्मी । ७ सप के ।