शिवसिंहसरो ८०३. हरिदेय निया, वृन्दावनवासी ( ब्दषयोनिधि पिंगल ) बरन-में गनन की, नहिं गुनदोपविचार । गात्रिक बदन में कियो, गन-एन-दोष सिद्धार ॥ १ ॥ ग्रंथ बृत्तरतनावली, तामें यह निरधार । चिरंजीव भट्ट ने, कीन्हो यह निस्तार ॥ २ ॥ आसिखादी सद मुरवाची सुभ सुखदान । इनमें गन अरु दर्थ को, फल नहैिं कि चखान ॥है। प्रवासि मानुषी कप में, गनगुन दोपविचार । दध वरन हू के फलनि, ताही में निरक्षर ॥ ४ ॥ ८०४हरीरम कवि ( पिंगल) सिद्धि मिले है मित्त मित सेवक जय जानहु । मित्त उदासी मिलात गिलत कछ लच्छन माहु ॥ मिले मित्र अरु सत्रु बहुत पीड़ा उपयनाहैिं । दास मित्र के मिलत काज सिधि को नर पात्रईि ॥ है साल नास है द्रास जहाने दास सम के मिले। हरिराम भने है हारि सहि दासsरु अरि जो कहें मिले ॥ १ ॥ ८०५. हरदयाल कवि श्यारी के दृगन में झमकि डग पीतम के पीनम के नैन दम प्यारी मनरंज हैं । चाड में सिंगार साज मैनही के सुसार दूध में पखारि घर माधुरी के मंज हैं ॥ हद्याल‘सुकधि रसाल उम्मा विसाल लाल मन लाल है के मैनसरसंग हैं । कंज बीच खं हैं कि खंज बीच के हैं कि कंज हैं कि खंज हैं कि दो कंज खंज हैं ।॥ १ ॥ . १ म्त का सार।। .
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