पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३८२

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शिसिंहसरोज ६५ चक्र पास वैरी बर वधिचे को भली विधि पढ़ी हैं । अबदुलवाहिद के नवीखान तेरी तेग वन के हथौरा काल कारीगर गढ़ी है । १ i ८०६. हरिकेश कवि, जहाँगीराबादी बुंदेलखंडी हाली वाली बरदिया, कटकैया कोतवॉर । ये तुम पर दाया करें, नितमति बारम्बार ॥ १ ॥ चन्द्र धरानि रवि धुष उदक्षि, सेस गनेस महेस । चिर थिर रा िक सदा, छत्रपती जगतेस ॥ २ ॥ मोर को मंजुल माथे किरीट लसे उर गुंज को हार ठगरो । ठाते रहे कस्र के हरिकेस खड़े गना तुम ड:ठि न टारो ॥ साँची कहीं तुम या छषि सकें वति को हौविकाऊ-से रोके । हैं नौ विा जो लेर्ता बने प्सि बोल तिहारो है मोल हमा॥ १॥ डडहे डंकन को सवद निसंक होत वहवही सघुन की सेना आइ सर की। हाथिन के एड मारू राग की उमंग उठं चम्पति को नन्द चह'यो उग समर की ॥ कहै हरिकेंस काली ताली दै न चत ज्यों-ज्ाँ ताली परसत छत्रसाल मुख बरक्षी । फरकिफर उठं वाहें अस्त्र वाँहिचे को करकिकर उठे करी बखतर की ॥ २ ॥ ८१०. हरिवंश मिश्र, बिलग्रामी को तुम दर्भ जा तिल आर्द्रत पूरित नीर गुमान भरी हो । श्रीबिरसिंह की दाननदी दम जाति पुरी दुम जाति नरी हौ ॥ काहे ते ना नमती हम को हरिवंस भंभे का प्रभाव बरी हौ । पानिसरोज ते हैं हम जू तुम भिंड्स के पग ते निकी हौ ॥ १ ॥ करिये जु कहा विन देखे तुहैं गृह तौ दृगपारिधि सगे भरिये । भरिये दिन एक स्कै हरिवंस तऊ निसि जागत ही तरिये ॥ ५ बलदेव २ कृष्ण । ३ शिव 1 ४ भैरव ।५ चलाने को।६ कुश। ७ अक्षतचॉवल । ८ वामन ।