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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३८९

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शिवसिंहसरोज

६७२ शिवसिंहसरोज पहिले तो लगाय के आाग सवैध जल को अब आपुर्तीि थावती हैं !? ॥ जानि सुजान मैं प्रीति करी सहि के जग की बहुति हँसाई । त्यों हरिचंद जो जो कवो सो करयो चुप है करि कोटि उपाई ॥ सोऊ नहीं निवही उनसएँ उन तोरत बार क न लगाई । साँची भई कहनावति या अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई॥२ ॥ ८२७हरजीवन कवि हरजीवन नेह भरी न रहै घर जी मनमोहन के गरजी । गरजी पनि उनकी मुरली तत्तका दिये में लयो संरजी ॥ सरजीवन देई न ऐसीपरी सु मनो घन प्राम गये घरजी। धर जीभ गई लटराय तऊ मुख से निकसे हरजी हरजी ॥ १ ॥ ८२८. हरदेव कवि उड़ेि उड़ि जात घनसार घन सोभासार हेरि हरि हंसन सी करते आतारे सी कईि हरदेव हिमगिरि सी गिरा सी गंग की सी सरसाती है। रती के तोर तारै सी ॥ कीरति तिहारी रघुनाथराव महादानि एडरीक-लेनी सुन सहज सत्ता सी - छीरद की है रही छटा सी चिति छोर पर चारै और दर्शा रही कलानिधि कतारें सी ॥ १ ॥ ८२६. हरि लाल केसरि निकाई के सलय कीरताई लिये झाई नाहीं जिनकी धरत अलकत है । दिनकर-सारथी ने देखियत एते सैन अधिक अनार की कली ते अरकत है ॥ लीला सी लसत जहाँ हीरा सी हँसनि राजे नैन निरखत अलकत आसकत है । जीवे नगलाल हरि- लाल लfल अ५रन सुघर प्रवाल से रसल झल फत है । ॥ १ ॥ १ बाण । २ सरस्वती ।३ कमल की पंक्ति ४ अरुण । ५ ह्यूगई । ६ रसले ।