पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३९०

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शिवसिंगसारोज

३०. हरिजन कवि

मेरे नैन अंजन तिहारे अधरन पर सोभा देखि गुमर बढ़ावे सभी सखियाँ। मेरे अधरन पे ललाई पीक लाल तैसे रावरे कपोल गोल नोखी तीक लखियाँ ॥ कवि हरिजन तेरे बिन गुन-माल तेरे बिन गुन माल रेख सेख देखि झखियाँ । देखौ लै सुकुर दुति . कौन की अधिक लाल मेरी लाल चुनरी तिहारी लाल आखियाँ ॥ १ ॥

८३१. हरिजू कवि

माया के निसान ने निसान :पंकीरति के जानत जहान कहूँ कहूँ उसlरन साँ । कुंज सी कु ये ही अंग ऐवी गुमराही गुनी देखि अनखाय पगे पाप कुकुरन सर्दी ॥ हरिजू सुकत्रि कहै वचन अमोलन के जाति कुरवातन वसाति अंसुरन . सो । माॅऺगत इनाम करतार ५ पुकारी कहीं परै जंनि काम ऐसे सूम ससुरन सो ॥ १ ॥

८३२ हीरामणि कवि

छाये रहे मानुष गवाधे रहे गीत रीत न्योते न्योतहारी सो चरात रही बनि ये । भीषम सकुचि घर भीतर ही बैठ रहे रोप करी लिये जात द्वारका को धनि ये ॥ हीरामनि रुकुम पुकार लगे यह सुनि विफल से वाँधि लिये हनते को हनिये । हरि कर कहत रुकुमिनी सों जादौनाथ अजहूँ तिहारे वीर सूरन में सनि ये ॥ १ I ढारि डारि इलधर हल कही वारवार कलप कलप की कलंक कुल दै गयो । दीरामान कहै जब कोऊ ना लाग्यो पुकार पांडुसुत है प्रचण्ड हुएडरीक के गयो ॥ तेह ते तमकि यो रुकिमिनी ने कही बात जब जदुनाथ प्रभु को दम दैगयो । साँ विन सूझे विन चू घिन जू बिन अर्जुन पकरि सुभद्राजी को ले गयो ॥ २ ॥

८३३..हरीराम प्राचीन

लागे लाल चौकी में विरजें हरीराम कहै रोमावंती दंड है । १ आईना । २ अपयश ।