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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/५०

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३१
शिवसिंहसरोज

शिवासिंहसरोज ३१ लागे तुंग फहरान लागे मेघमंडलीन के भनत कर्षिद धरासारन भरम लागे कोस होन लागे विकसित कैदलीन के ॥ उटज निवा सिन के त्रास उपजन लागे संपुष्ट खुलन लागे कुटजकलीन के । माचो बरहीन के अहीन सुर झिल्लिन के दीन भये वदन मलीन बिरहोंन के ॥ ४ ॥ ऐसे मैन मैन के न देखे ऐन सैन के जमैया दिन रैन के जितैया सौति सीन के । कमल कुलीनन के मुक्कुलवीक रनहार कानन की कोरन लॉ कोरन रेंगीन के ॥ भनत कबिंद भावती के नैन चायक से देखे मैनपाधक से नायक सवीन के । सींचे हैं ग्रैमीन के अमीन मानौ मीन के बखानै को मृगीन के ख गीन पन्नगीन के ॥ ५ ॥ ( विनोदचन्द्रोदय ) सम्बत सकत अठारह चारि । नाइकादि नायक निरधारि ॥ लहि कबिंद लच्छित रसपंथ । किय विनोद चन्द्रोदय ग्रंथ ॥ दोहा-कालिदास काम के युवन) उदयनाथ सरनाप । भू अमेठी के दियो, री िकबिंद सुनाम ॥ १ ॥ तासु तनय दूलह भयो, ताके पहिये हेतु । रसचन्द्रोदय तब लियो, कवि कबिंद करि चेलु ॥ २ ॥ कवित्त । चलत मलिन की महिमा घट0वें वैन बोलत अवैन करै प्रभुता चिकन की । मुसक्यात सुधा को सुहाग सो सफले लेति बरनन जीते सुन्दराई सुवरन की ॥ भनत कबिंद जाकी निरखत मुन्दाई पाई है इगन बड़ाई दीटिपन की / मन ते न भूलति भुलावे मन ही को वह चहचहे चखन की लहलहे तन की ॥ १ ॥ धुक्त चलत अरि चत उल्कन लौं मुक्त किलान के फारनि दवेश के भनत कबिंद जहाँ पेस की मवासी कौन कम्पत जिसे १ मोर दिन । को २ नहीं मुकुलित सूझता करनेवाले नर पक्षी । । ३ अमृत । ४ हंस ।५ उल्लू,

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