पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/६९

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शिवसिंहसरोज

५ ० शिवसिंहसरोज जाति हुती सखि गोहन में मनमोहन को बहुतै ललचानो। नागरि नारि नई ब्रज की उन। नंदलाल को रीझिवो जानो ॥ जाति भई फिरि के चितई तघ भाव रहीम यहै उर थानो। व्यों कमौत कमान कसे फिरि तीर गें मारि जात निसानो 1१॥ सोरठा—दीप हिये छपाय, नवल पर लें चली । करविहीन पबिताय) कुच लवि निज सीसे धुनै ॥ १ ॥ तुरुक गुरुक भरपूर इवि इवि सुरगुरु उठे । चातक जातक दूर देह दहै विन देह को ॥ २ ॥ चरव लहरत लहर लहरिया लहर बहार । मोतिन जरी किनरिया विद्युरे वार ॥ १ ॥ दोहा-साधु सरहैं साधुता, जती जोपिता जान। रहिमन मॅाँच सूर को, वैरी करै वखान ॥ १ ॥ नैन सलोने अधर मधु) कहि रहीम घटि कौन । मीटो चहिये लौन फै, मीठे तू मैं लौन ॥ २ ॥ राहिमन ओछ प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार । नीर चुरावत संपुटी, मार सहत घरियार ॥ ३ ॥ रहिमन पेटे साँ कहै? क्यों न भयो तू पीढि । भूखे मान विगार ही, भरे विगारहि दीठि ॥ ४ ॥ अमी पियावै मान विन, रहिमन मोहैिं न सोहाय । मानसहित मरिवो भलो, वरु विप देइ बुलाय ॥ ५ ॥ रहिमन पानी राखिये, घिन पानी सब सून । पानी गये न ऊबरें, मोती, मानुप, जून : ६ ॥ बड़े बड़ाई ना त, लघु रहीम 'इतराय । राय करौदा होत है, कटहर होत न राय ॥ ७ ॥