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शिवसिंहसरोज


१३०. गुनदेव कवि

बैठें चटसार मे कुमार हैं हजार जहाँ वेदन को भेद भाँति भाँति- न को रहिवो । कहै गुनदेव कोऊ लिखत ललित अंक कोक करै बाद कोऊ वैन गुन गढीवो ॥ तहाँ हरनाकुस को पुत्र मतिधीर जा– के दूजो और आखर सपथ मुख कढीवो । निरख़ि असार सव सार सुख जानि एस रगमंत्र सार प्रहलाद सीखो पढिवो ॥ १ ॥

१३१ गुमान कवि (२)
( कृष्ण चन्द्रिका ग्रन्थे )

खग मोहे मृग मोहे नग मोहे नाग मोहे पन्नग पताल मोहे धुनि सुनि जासु री । सुर मोहे नर महे सुरनसुरेस मोहे मोहि रहे मुनि के असुर अरु आसुरी ॥ भनत गुमान कहौ मोहिवे की कहा वानि चर औ अचर मोहे उमँगि हुलासु री। गोपिन के वृन्द मोहे आनँद मुनिंद्र मोहे चंद मोहे चंद के कुरंग मोहे बाँसुरी ॥ १।। झुकि रहो मुकुट रही है भूमि मोतीमात चुमि रहे कान्ह नैननोक अनियारे री । कलित कपोल छवि है रहे रद्दन चारु च्वै रही अधर अरुनाई अनियारे री ॥ भनत गुमान नव बीना छहराइ रही कंध फहराइ रहे छोर पट न्यारे री । हरि रहे मो तन गुबिंद धेनु फेरि रहे कूलनि कलिंदजो कंदव तरे प्यारे री ॥ २ ॥

१३२. गंगाधर कवि (२ )
(उपखतलैया)

में भववाधा हरी राधा . नागरि सोइ ।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित घुति होइ ॥
स्याम हरित पुति होइ हरत हिथ हेनहारहि ।
याही ते सब हरे हरे कहि नाम उचारहि ॥


१ जिसकी । २ असुरों की स्त्री । ३ दाँत । ४ यमुना ।