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शिवसिंहसरोज


१३६. गोपाललालकवि (३ )

प्रेम की दुकान में विचारी में न पैठियतु काम की दुकान सों सयान सब हारा है । क्रोध कोतवाल जिन प्यादे को पकरि पाया दाया को दिवान जिन माया फाँस डारा है ॥ मोह के गुमासता जे मिले भले आदर सो मोह छवि गाहक जो बाँचि कै विचारा है ।ऐसे ऐसे वानिज को लादि है गोपाललाल कंचन सहर पर–

पंचन विगारा है ॥ १ ॥

१३७.गोप कवि

गनेन के आगे पग गुन देखि भापत हौ जैसे होत कूच के न- गाड़े - की उघट मैं । वीरी बीच सीरी तेहि रावरे न जानत हौ जानत हौ सोड़ीं तुम जोड़ी होत नट मैं ॥ एते पर राधिका की मा को नाम चाहत हौ देखौ नाहीं सुनौ कहूँ अघट उघट मैं । गोप चतुरई की जनावत हौ गूढ़ बात मजनू की रट मै सु साहब के घट मै ॥ १ ।।

१३८, ग्वालराय कवि मथुरा निवासी (१)

जाकी खूब खूबी खूब खूबन मैं खूबी खूब ताकी खूव खूवी ख़ूबखूबी अवगाहना । जाकी बदजाती बदजाती इहाँ पंचन मैं तोकी बदजाती बदजाती हाँ उराहना ॥ ग्वाल कवि ये ही परसिद्ध सिद्ध रहैं पर सिद्ध वहै जाकी इहाँ उहाँ की सराहना । जाकी इहाँ चाहना है ताकी उहाँ चाहना है जाकी इहाँ चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना ॥ १ ॥ सोहत सजीले सितं असितं सुरंग अंग जीन सुचि अंजन अनूप रुचि हेरे हैं । सील-भरे लसत असील गुन साज दै कै लाज की लगाम काम कारीगर फेरे हैं ॥ घूँघट फरस ताने फिरत फवित फूले लोक कवि ग्वाल अवलोकि भये चेरे हैं। मोर– वारे मन के त्यों पन के मरोरखारे त्योरखारे तरुनी तुरंगें दृग तेरे


१ गण । २ श्वेत । ३ श्याम । ४ घोड़ ।