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पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/९०

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शिवसिंहसरोजे

कंधु सो कंठ लसै कुच कोक से भौंर सी नाभि भरी भ्रम भासी ।। गोकुल घार सी रोमावली लहरी सी लसै त्रिबली छविरासी । लाल विहार करौ रंस में वह बाल बनी सुख की सरिता सी ॥ १ ॥ जो तन चेतं महीप चिंतै मन वैरिन के धरै धीरज धंवन। गोकुल साधु रहैं सुख सों खल के कुल भागि बसे गिरिरंघनें ॥ सेवक फूल भरै अनुकूल भएं प्रतिकूल ते कौन से अंधन । छूटि परै धनु बीरन के तरुनीन के टूटि पर्ण कटिबंधन ॥ २ ॥

१४३: गोपीनाथ बनारस

देखि पावती तौ उन्हें उतही बनाइ नीके दोपहि दुरावती जु देखे दोष धारेगी । पीकलीक लेखति न कहा कहौ एरी बीर सील सील सो मैं है असील रोप धारैगी ॥ बिनै वितरे हू कर जोरि गोपीनाथजू के लेखिये न सरस पतीक हिये वारैगी । आली मैं न जानी मुंखदानी पिय प्यारे सो सयानी प्रेमसानी सो नदानी है विंगरैगी ॥ १ ॥ गुलजार वाग वीच वँगला कनकमई मनिमई खंभ जागै - जोति चटकीली सो ।। मोतिन की झालरें झलकदार छतिपोस झिलिमिलि झाँप झमैं झरि झलकीली सौं ॥ जटित जवाहिर सो जेवदार परंजक गोपीनाथ रमैं तामैं रमनी रसीलीं सो । मोद मन दपटे सनेह रस लपटे सो लपटे सुगंध सो सु छपटे छवीली सो ॥ २ ।।

१४४: गीध कवि
छप्पै

ससि कलंकि रावन विरोध हनुमत सो वनचर ।
कामधेनु ते पसू जाय चिंतामनि पाथर ॥
अतिरूपा तिय वाँझ गुनी को निरधन कहिये ।
आति समुद्र सो खार कमल विच कंटक लहिये ।


१ महराज चेतसिंह । २ पर्वत कंदराओं मे।