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शिवसिंहसरोज


१६७. गोपालदास
पद

भोर अंगअंग सोभा स्याम के भली । मानहुँ विकसित विचित्र नीलकमल की कली ॥ प्रियाउरसि लग्न रागसरत छुरित छवि पराग पत्रन परसि मन्द लै सुगन्ध को चली । करि प्रवेस घान– द्वार हरति जुवतिचित्तसार मरम बेधि समरवान काम ते वली । ॥ पलटि बसन सुखनिधान मत्त मधुप करत गान सुरतसमय सुजस सुनो स्त्रवन दै अली । गोपालदास मदनमोहन कुज्जभवन बलित रंग मुदित अवनि भावनी सुमानि.के रली.॥ १ ॥

१६ गदाधरदास
पद

जयति श्रीराधिके सकल सुखसाधिके तरुनिमनि नित्य नव तन किसोरी । कृष्णतन नलिघन रूप की चातकी कृष्णमुख हिमकिरन की चकोरी ॥ कृष्णदृग भृंगै विसरामहित पद्मिनी कृष्णदृग मृगज़ वन्धन सु डोरी । कृष्णअनुराग मकरंद की मधुकरी कृष्णगुनगानरसिंधु बोरी । परमअद्भुत अलौकिक मेरी गति लखि मन सु साँवरे रंग अंग गोरी । और आश्चर्य कहुँ मैं न देख्यो सुन्य चतुर चौंसठि कला तदपि भोरी ।। विमुख पराचित्त ते चित्त जाको सदा करत निजनाह की चित्तचोरी । प्रकृति यह गदाधर कहत कैसे वनै अमित महिमा इतै बुद्धि थोरी।।१ ॥

१६६. घनश्याम कवि असनीवाले ब्राह्मण

अटै औनि अम्वर छुटै सुमेरु सुन्दर से घटै मरजादा वीर वा– रिधि के बेला की । कहै घनयाम घोर घन की घमंडै गज मंडै ध्वज मंडै उमड़े जे रबिरेला की ।। धारा वरछीन की विदारें तन दैत्यन के पन्द सी कुठारै परै संकर के चैंला की । दब्बै दिगपीलवल


१ प्रिया की छाती में । २ लगे । ३ नाक के द्वारा से । ४ भ्रमर ।