पृष्ठ:शिवा-बावनी.djvu/१८

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शिवा बावनी

शिधा बावनी कर अपने महलों का दरवाजा भी नहीं देखा था, प्राज बिना सवारी के नंगे पैर रास्ते में जाती हैं। जिनके महल के भीतर हवा भी नहीं जा सकती थी, अब वही हवा के लगने से व्याकुल हो रही हैं। घबड़ाहट से उनके स्तनों पर से वसा तक खिसक गया है, पर वे उसे बिना सँभाले ही लाखों आदमियों की भीड़ में हो चली जाती हैं। आपके भयले लजा केवल को फाड़ कर अर्थात् लजा त्याग कर, वे मनही मन क्रोध कर रहा हैं। बादशाह की बेगमें ऐसी दीन हो गई है कि जो नासपातियां और मेवे खाती थी, आज सागभाजी खाकर ही दिन काट रही है। टिप्पणी यहां अनुमास और यमक अलंकार है। हयादारा-लज्जा । नरम-नम्र, दीन । हरम बेगमें। नासपाती-यहां पर नासपाती के प्रयोग से मेवे और बढ़िया फलों से अभिप्राय है । बनास- पाती-बनस्पति का अपभ्रंस है। यहां अभिप्राय ग्ररीचोंके खाने योग्य सागपात से है। अतर गुलाब रस चोवा घनसार सब, सहज सुवास की सुरति विसराती हैं। पल भर पलंग ते भूमि न धरति पाँव, भूली खान पान फिर बन बिललाती हैं। बन भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, दारा हार बार न सम्हारे अकुलाती हैं।