पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/१००

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शृङ्गारनिर्णय यथा कविता नौद भूख प्यास उन्हें व्यापत न तापसी लो ताप सौ चढ़त तन चन्दन लगावे तें। अतिही अचेत होत चैतह के चादनी में चन्द्रकन खाये तें गुलाब-जल न्हाये ते॥ दास भो जगतप्रान प्रान को बधिक श्री कृसान ते अधिक भये सु- मन बिछाये तें। नेह के लगाये उन तो तें कछ पाये तेरो पाइबो न जान्यो अब भौंहनि चढ़ाये तें ॥ २८६ ॥ प्रवासवियोग-दोहा। पिय बिदेस प्यारी सदन दुसह दुःख प्रवास ! पत्री संदेसनि सखौ दुःदिसि करै प्रकास॥२८॥ प्रीषितनायक यथा-- कवित। चन्द चढ़ि देखौं चार आनन प्रबीन गति लीन होत मात गजराजनि को ठिलि ठिलि । बारिधर धारनि ते बारन यै है रहे पयोधरनि छ रहै महारनि को मिलि मिलि ॥ दई निरई दास दोनो है विदेस तज करौं ना अंदेसी तुव