पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/५७

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शृङ्गारनिर्णय। परकीया अभिसारिका सवैया। लछन धौल अटा लखि नौल दियो किट. काय छटा छबिजालहि । तापर पूरो सुगन्ध अतूल को दै गई मालिन फल को भात हि छोडि दियो मोहि लोगनि भोन दई दिया दास महा सुख-कालहि । आलो दोषी को नौचौ उदीची को दौची निभीचि ल्याउरी लालहि । शुलाभिसारिका कछित्त। सिखन व पूलन के भूषन विभूषित क बांधि लौनो बलया बिगत कौनी बजनी । तापर सं- वाखो सत अंबर को डंबर सिधारी स्याम सलि- चिनिहारी कहूं न जनी ॥ छोर के तरंग की प्रभा को गहि लीन्ही तिय कोही और सिन्धु छिति कातिक को रजनी। आनन प्रभातें तन छांहहू छपाए जाति भौरन के भौर संग लाये जाति सजनी ॥ १६ ॥ काषणाभिसारिका यथा । जलधर टारै जलधारन को अंधिकारी जिपट अंधारी भारी भादव को जामि नौ । तामे स्थाम. ..........