पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/५८

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'शृङ्गारनिर्णय बसन बिभूखन पहिर स्यामा स्याम पे सिधारी प्यारी मत्त गजगामिनी ॥ दास पौन लागे उ. परैनी उडि उडि जाति तापर न क्यों हूं मांति जानी जाति भामिनी । चार घटकोली छवि चमक चमक उठे लोग कहैं हमकि दमकि उठे दामिनी ॥ १६८ ॥ इति संयोग । अथ बिरह हे तुलक्ष न दोहा । बिरह हेत उत्कंठिता बहुरि खंडिता मानि कहि कलहंतरितानि पुनि गने विप्रलचादि । मांचो प्रोषित मटका सुनो सकल कविराय तिनके लच्छन लच्छ अब आछो कहों बनाय । उत्कंठिता लक्षन दोहा । प्रेमभरी उस्कनिष्ठता जो है प्रीतमपंथ बेर लगे त्यो व्यों बढ़े मनसूबन से ग्रन्थ ॥ १७१॥ यथा सवैया। जो कहो काहू के रुप सो रोके तो और को रूप रिभाबनवारी? । जौ कहो काह के प्रेम